Friday, August 16, 2019

मणियों की घाटी- स्पीति

मणियों की घाटी- स्पीति

रिकांगपिओ किन्नौर का दिल है जिसे दो संस्कृतियों का संगम कहा जाए तो गलत नहीं होगा।हम रिकांगपिओ से शिमला की तरफ रुख करते हैं तो हिंदू बहुल इलाका और काज़ा की तरफ चलते हैं तो बौद्ध संस्कृति स्वागत करती है । रिकांगपिओ में हिंदू और बौद्ध धर्म दोनों एक साथ सांस लेते हैं। इसी रिकांगपिओ को पार करते ही मणियों की घाटी स्पीति का सफर शुरू होता है।

स्पीति
लाहौल स्पीति हिमाचल का जनजातीय इलाका है और भारी हिमपात की वजह से कई महीने दुनिया से कटा रहता है। हिमालय की गोद में बसा स्पीति स्पितियान की सरजमीं है जिसे छोटा तिब्बत कहा जाता है । स्पीति गोम्पाओं की धरती है जिसके एक तरफ जम्मू -कश्मीर है तो दूसरी तरफ तिब्बत लगा हुआ है। स्पीति पहले पंजाब के कांगड़ा जिले का हिस्सा हुआ करता था मगर नए राज्य हिमाचल में लाहौल और स्पीति का विलय करके एक जिला बना दिया गया लाहौल -स्पीति, अब लाहौल और स्पीति अलग-अलग घाटियां हैं। स्पीति का मुख्यालय काज़ा में है और लाहौल का मुख्यालय केलांग में है । स्पीति में जिंदगी जीना आसान नहीं है मगर यहां के लोग तमाम मुश्किलों के बावजूद हौसले की बदौलत जिंदगी के सफर को तय करते हैं। यूं तो स्पीति की संस्कृति का अध्ययन अपने आप में एक रोचक अनुभव है मगर यहां के गांवों में गजब का आकर्षण है। स्पीति के मठ दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं।

ताबो मोनेस्ट्री
ताबो मठ की स्थापना 996 ईस्वी में हुई थी और यह देशभर में सबसे प्राचीन मठ है । ताबो यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में शामिल है । ताबो को हिमालय का  अजंता कहा जाता है क्योंकि इसकी दीवारों पर बेहतरीन  नक्कासी की गई है । ताबो पुराने समय में शिक्षा का एक बड़ा केंद्र हुआ करता था और इसे बनाने में 46 साल लगे थे।

की मोनेस्ट्री
की मठ दुनिया भर में प्रसिद्ध है जिसकी स्थापना 11 वीं शताब्दी में हुई । की लाहौल -स्पीति का सबसे बड़ा मठ है और लद्दाख के थिकसे मठ जैसा लगता है । की मठ शांति और सद्भावना का प्रतीक है जिसके कमरे अधिकतर बंद रहते हैं । मठ में एक विशेष कक्ष है जो दलाई लामा के आगमन पर ही खुलता है।

किब्बर गांव
किब्बर 'की'मठ से लगभग 16 किलोमीटर की दूरी पर है जिसे विश्व का सबसे ऊंचाई पर बसा गांव माना जाता है ।समुद्र तल से किब्बर गांव की ऊंचाई 4850 मीटर है।किब्बर में लगभग 80 घर हैं जो पत्थरों से बने हैं । बौद्ध सभ्यता का जादुई सौंदर्य ,पहाड़ की ऊंची चोटियां और बर्फीला रेगिस्तान दूर तक फैला नजर आता है। पहाड़ों पर बनी गुफाओं में 'ओम मणि पद्मे हूम' मंत्रों की मधुर आवाज एक अलग अनुभूति का एहसास कराती है । मठ में चक्र घुमाते हुए लोगों को देखकर जिज्ञासा हो सकती है कि बौद्ध लोग इस चक्र को क्यों घुमाते हैं । इसकी मान्यता ये है कि इस चक्र को जितनी बार घुमाया जाएगा ये उतनी ही बार का फल दायक होगा।

धनकर मठ
धनकर मठ समुद्र तल से 3870 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। 17 वीं सदी में, धनकर स्पीति घाटी की राजधानी थी। धनकर बौद्ध मठ धनकर गांव में है जो ताबो और काजा के बीच स्पीति व पिन नदी के संगम पर  है।

काज़ा
काज़ा स्पीति  घाटी का  मुख्यालय है जो इलाके का सबसे बड़ा और  विकसित शहर है। सड़क मार्ग से शिमला  होते हुए किसी भी मौसम मे काज़ा पहुंचा जा सकता है बशर्ते रास्ता बंद न हो जबकि रोहतांग और कुंजुम के माध्यम से मनाली रोड गर्मियों में ही खुलता है। मनाली से काजा तक केवल एक सरकारी बस चलती है। सड़क पर अक्सर भूस्खलन होता रहता है यही वजह है कि ये रास्ता बहुत दुर्गम माना जाता है। मगर जिनको इस रास्ते पर सफर करना है वो कब अपनी जान की परवाह करते हैं।
स्पीति  का अर्थ मणियों को रखने की जगह से है और स्पीति की खाशियत भी यही है कि यहां दुनिया भर के नायाब पत्थर बिखरे पड़े हैं ।

लोग हैं कि दिल और रेत पर नाम लिखते फिर रहे हैं पत्थर पर लिखना है तो स्पीति आइए..एक बार जो लिखा तो फिर मिट न सकेगा।




आवाज देकर हिमालय पुकार लेता है..

कुंजुम पास और चंद्रताल
अछूती वादियों का सफर करने के बाद लाहौल वापसी हो रही थी .हमारे लिए यह एक रोमांचक सफर था. रोमांचक इसलिए कि ऐसी यात्राओं में खुद को खोकर खुद को खोजना है .कई बार आदमी खुद से रूबरू होने की उम्मीद लिए सफर करता है.यह हिमालय का जादू भी है जिससे लंबे वक्त तक हम मुक्त नहीं हो पाते है .थोड़े वक्त बाद अतीत में जीते हुए कुछ दिन हम फिर से जी पाते हैं.. ऐसे सफर यादों के गलियारे में हमेशा दस्तक देते रहते हैं.

कुंजुम पास
 हिमाचल में लोग पास को जोत के नाम से पुकारते हैं . कुंजुम दर्रा कुल्लू घाटी और लाहौल स्पीति घाटी को जोड़ता है और तिब्‍बत से होकर गुजरता है। यह 4590 मीटर की ऊंचाई पर है और मनाली से 122 किमी दूर है .

चंद्रताल : चांद की धरती का नजारा
अर्धचंद्राकार चंद्रताल बेहद खूबसूरत झील है जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है.लाहौल व स्पीति घाटियों की सीमा पर कुंजम पास के नजदीक चंद्रताल से चंद्र नदी का उद्गम होता है जो आगे चलकर भागा नदी से मिलकर चंद्रभागा और जम्मू-कश्मीर में जाकर चेनाब कहलाती है । कैंपिंग के लिए यह शानदार जगह है.

लाहौल सौंदर्य और रोमांच की भूमि है जिसे 'लैंड ऑफ पासेस' पुकारा जाता है .लाहौल स्पीति में कई गांव है जो रहस्य से भरे और वीरान से लगते हैं .मेरे जैसे मुसाफिर के लिए यह सफर उम्मीद की सहर है...
काजा में तबीयत अचानक खराब हो गई,ऐसा पहली बार हुआ था कि सांसे नहीं जुड़ पा रही थी .काजा अस्पताल की डॉक्टर मुझे एमबीबीएस डॉक्टर समझ रही थी .चेकअप करने के बाद कहने लगी थोड़ा सा बी पी बढ़ गया है , आराम की जरूरत है .डॉक्टर ने फिर पूछा कि आपको पहले कोई बीमारी तो नही .मैंने कहा बीमारी तो कोई नहीं है मगर अब दिल पर ऐतबार नहीं है. मैं अपने आपको तसल्ली देते हुए अस्पताल से निकला और काजा से फिर आने का वादा करके विदा ली.

 लाहौल स्पीति के लोग बड़े जिंदा दिल है इसलिए इस सफर पर उन्हीं लोगों को निकलना चाहिए जिनका दिल बड़ा है. वे लोग इस सफर पर ना निकले जिनका दिल मुफलिस सा है या फिर जिनको अपने दिल पर ऐतबार नहीं..

 एक वो है जो मुझको अपनी जिंदगी मान बैठा ..
 एक मेरा ये दिल है जो मुफलिसी में जी रहा है.








शांघड का सफ़र


शांघड का सफ़र


                   दिल करदा कि बस्सी जाइए

पहले मण्डी शहर के बारे में ...
मेरे दोस्त विनोद 'भावुक'ने अपनी किताब 'मेरियां ग़ल्ला गाजल बेल' में मंडी शहर के बारे में लिखा है  -
    फिरी सद्दे आए मंडिया
    फिरी दिल ने लाए मंडिया
    दिल करदा कि बस्सी जाइए
    छड्डी कांगडा माए मंडिया
उन्हें कांगड़ा छोड़ने का ग़म है मगर मंडी से मोहब्बत इतनी है कि यहीं बस जाने को दिल करता है ।

मैं जब भी मंडी के विक्टोरिया ब्रिज या ऐतिहासिक सेरी मंच से गुज़रता हूँ तो लगता है इसकी भव्यता और ज़्यादा बढ़ गई है। वैसे भी मंडी बड़ी नज़ाकत वाला शहर है जो सुकेत के साथ चंद्रवंशी राजाओं की रियासत रहा। मौजूदा वक़्त में यहाँ के नज़दीकी गाँव भाम्बला की कंगना रानौत भी न जाने कितने दिलों की मल्लिका बनी हुई है । मण्डी फ़ैशन के लिहाज़ से भी मुंबई के बाद शिलांग और देहरादून से किसी मायने में कम नहीं ।
 इस बार की यात्रा में पहले दिन मंडी से रिवालसर फिर शांघड और उसके बाद पराशर जाना तय हुआ । आज का दिन सैंज वैली में शांघड के नाम है ...साथ में हैं पत्रकार विनोद 'भावुक'और अनूठे यायावर संजय भारद्वाज

शांघड़ : प्रेमियों को देता है पनाह

 देवदारों के जंगल से घिरा शांघड़ क़ुदरती तौर पर बड़ा ख़ूबसूरत है । शांघड मण्डी के ओट से लगभग 40 किलोमीटर दूर सैंज घाटी में दिल को सकून देने वाला देवस्थल है । इस जगह पर एक बहुत सुन्दर विशाल मैदान है और यहीं शंगचुल का मंदिर है जो प्रेमियों की पनाहगाह माना जाता है ।
शांघड मैदान एक सुरक्षित क्षेत्र है जहां पुलिस टोपी और बेल्ट लगाकर प्रवेश नहीं करती । इसी के साथ इस जगह की कई परंपराएँ सदियों से  चली आ रही हैं जैसे कि इस जगह पर कोई सरकारी कर न लगे,यहां कोई डाली तक न काटी जाए। किसी तरह की कोई हिंसा न हो और कोई किसी को तंग न करे। प्राचीन काल से चली आ रही एक परंपरा ये भी है कि जब प्रेमी जोड़े घर से भागकर यहाँ पहुँचते तो ये मंदिर उनको पनाह देता । यहाँ आने के बाद बातचीत के जरिये मसला सुलझाया जाता ,क़ानून इसमें कोई दख़ल नहीं देता था । इस प्रकार आज भी यहां ये देव प्रथा है और शंगचुल प्रेमियों को पनाह देता है।
इन सब ख़ासियतों के अलावा शांघड उन लोगों के लिए बेहतरीन जगह है जिनका सकून कोई मोहब्बत के बहाने या फिर ज़माना ले गया ।



पराशर झील

पराशर झील 

 मैंने इतना जाना है कि पूर्व नियोजित यात्रांएं कभी पूरी नहीं होती इसलिए इन यात्राओं के लिए मैंने किसी प्रकार का कोई नियोजन नहीं  किया। यात्रा का अगला पड़ाव पराशर है .. साथ में हैं स्वरुप डोगरा जी और दीपू भाई।

पराशर झील मंडी से उत्तर दिशा में लगभग 50 किलोमीटर दूर एक प्राकृतिक झील है।प्राकृतिक सुंदरता के अलावा इस झील में तैरता भूखंड एक आश्चर्य है.  झील के किनारे पैगोडा शैली में सुंदर मंदिर बना हुआ है जिसे 14वीं शताब्दी में मंडी रियासत के राजा बाणसेन ने बनवाया था। यह अद्भुत मंदिर 12 वर्ष में बनकर तैयार हुआ जिसे  देखने के लिए कला संस्कृति प्रेमी पर्यटक यहाँ लगातार आते हैं। ऐसा माना जाता है कि जिस स्थान पर मंदिर है वहां ऋषि पराशर ने तपस्या की थी। पिरामिड आकार की पैगोडा शैली के काठ से निर्मित मंदिर की भव्यता अपने आप में उदाहरण है। मंदिर के निर्माण में पत्थरों के साथ लकड़ी के प्रयोग ने मंदिर को कलात्मकता प्रदान की है। मंदिर के बाहरी स्तंभों पर की गई नक्काशी शानदार और अद्भुत है।

पराशर आने वाली गड़ियों को झील से थोड़ा पहले रुकना होता है फिर पैदल ही झील तक पहुंचा जाता है। ये सही भी है कि इसी वजह से इस देव भूमि और झील का प्राकृतिक सौंदर्य बचा हुआ  है।
यह जगह बेहद शांत और चहल- पहल से दूर है। पराशर झील की यात्रा कभी भी किसी भी मौसम में की जा सकती है। सर्दियों के मौसम में जब यहाँ बर्फ पड़ती है तब  झील और इसमें बसे टहला का नज़ारा गजब का होता है। पराशर झील के लिए 8 किलोमीटर की  ट्रेकिंग भी की जा सकती है।आप ये जगह देखना चाहते हैं तो अपने बैग में (गर्म) कपड़े  डालिए और निकल पड़ें पराशर के लिए ... यहां आकर कुदरत के साथ आनंद मनाइए और ख़ूबसूरत लम्हों को अपनी आत्मा के साथ अनुभव करिए।




मशोबरा हिल स्टेशन

मशोबरा हिल स्टेशन

 शिमला से आगे जब भी सराहन, किन्नौर या  लाहौल स्पीति जाना हुआ तो नारकंडा होते हुए सीधे निकल गए मगर मशोबरा रुकना कभी नहीं हुआ ।इस बार कुछ दिन के लिए मशोबरा आना हुआ तो इसकी खूबसरती को भी करीब से महसूस किया। मशोबरा सर्दियों में बदलते मिजाज के लिए मशहूर है क्योंकि उस वक़्त यहां तापमान -10 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है। अक्टूबर से फरवरी तक यहां बहुत ठंड होती है और जनवरी में भारी स्नोफॉल होता देखा जा सकता है ।
मई जून में जब मैदानी इलाके गर्मी में तप रहे होते हैं तब मशोबरा का मौसम बडा दिलकश हो जाता है। गर्मी की छुट्टियों में पहले लोग अक्सर शिमला, मनाली और मसूरी का रुख करते थे मगर अब घूमने के लिए भीड़-भाड़ से दूर शांत जगहों की तलाश में रहते है।
 मेरे पास मशविरा चाहने वाले कई दोस्तो के फोन आते हैं जो हिमाचल की यात्रा करना चाहते हैं। मै उनकी रुचि के अनुसार किसी जगह का नाम सुझा देता हूं । मित्र कई बार कहते हैं कि कोई ऐसी जगह बताइए जो ज्यादा दूर ना हो और बीवी बच्चे भी खुश हो जाएं । मै उन दोस्तों को कहता हूं कि बच्चों को आप जहां भी घुमा दें खुश हो जाएंगे मगर बीवी को चाहे स्विटजरलैंड घुमा देना उसे सर दर्द की शिकायत वहां भी बनी रहेगी ।
खैर...  इस बार आप गर्मी के मौसम में किसी पहाड़ी इलाके में घूमने जाना चाहते है जो ज्यादा दूर न हो तो मशोबरा एक अच्छा विकल्प हो सकता है । दुनिया की भीड़ से दूर छुट्टियां बिताने के लिए मशोबरा बेहतरीन जगह है। मशोबरा शिमला से 10 किमी की दूरी पर एक लोकप्रिय पर्यटक स्थल है जो समुद्र तल से 2500 मीटर की ऊंचाई पर है। माउंटबेटन और लेडी एडविना की जीवनी के अनुसार मशोबरा को लार्ड डलहौजी ने 18वीं सदी में स्थापित किया था। मशोबरा चारों ओर से चीड़, पाइन और देवदार के जंगलों से घिरा हुआ है।

 कैरिगनानो नेचर पार्क  मशोबरा का एक  प्रमुख आकर्षण है । यह छोटा-सा हिल स्टेशन खूबसूरत तो है ही साथ में एडवेंचर के लिए भी एक बेहतरीन जगह है । यहां आप ट्रैकिंग ,कैंपिंग और बाइकिंग जैसे कई सारे एडवेंचर का आनंद ले सकते हैं। आपके पास वक़्त की कमी नहीं है तो मशोबरा से तत्तापानी, नालदेहरा ,करसोग के लिए निकला जा सकता है। आप यहां आकर कहीं भी न जाएं तो भी मशोबरा आपको मायूस नहीं होने देता ।

हाल ही में एक मैसेज मिला जो इस तरह से है :
ज़िन्दगी तो अपने आप पूरी हो रही है आप अपने शौक पूरे कीजिए।










Thursday, November 3, 2011

अलविदा 2011

नव वर्ष मंगलमय हो .. 

आज बड़े दिनों बाद ब्लॉग पर लिखना हो रहा है कुछ   दिन पहले काफी कुछ लिखा लेकिन सब डिलीट हो गया . ये जानते हुए  कि पत्रकारिता में संवादहीनता गलत मर्ज है, मै अक्सर अपने अजीज मित्रों के - मेल का जवाब भी नहीं दे पाता , इसकी वजह मेरी व्यस्तताए नहीं हैं बल्कि सफ़र में रहना और मेरा गैर- दुनियादार होना है

'अनफोरगेटेबल'
वर्ष 1998 कि एक तपती दोपहरी में मेरी एक मित्र ने गजल का अल्बम देते हुए कहा था कि' ये आपके लिए है' उन दिनों खुमारी ऐसी थी कि अल्बम कितनी बार सुना गया मुझे याद नहीं है वह अल्बम जगजीत सिंह और चित्रा जी कि आवाज में था  जिसका नाम है 'अनफोरगेटेबल '

अपने बेटे विवेक की मौत के बाद दरवेशों जैसी जिंदगी जीने वाले जगजीत सिंह का पिछले दिनों अवसान हो गया बहुत पहले से उन कदमो कि आहट  जान लेने वाले उस महान  कलाकार ने शायद मौत के कदमो कि आहट को भी उसी वक्त जान लिया होगा जब उन्होंने गाया  कि 'तुझे जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं ' अल्बम देने वाला अब मेरे साथ नहीं है और ही जगजीत हमारे बीच हैं, उनकी आवाज हमेशा हमारे साथ रहेगी........ उसी तरह जैसे मैंने अल्बम को करीने से सजा कर रखा है

जगजीत और उनकी मखमली आवाज को नाचीज का सलाम


रागदरबारी 
हिंदी साहित्य की एक और बड़ी शख्सियत से हम वंचित हुए है और वे हैं श्रीलाल शुक्लदेश के एक मूर्धन्य साहित्यकार जिनसे प्रेरणा लेकर जाने कितने लोगों ने साहित्य की  पाठशाला में कदम रखायुवा साथियों से कहना चाहूँगा की मुंशी जी  का गोदान पढ़ने के बाद कोई पुस्तक पढ़ी जाए तो वह शुक्ल जी की  रागदरबारी.




 कुछ समय बाद  मनमौजे ढंग से  याहू कहने वाले शम्मी कपूर हमसे विदा हुए और वर्ष के अंत में 4  दिसम्बर को लन्दन से खबर थी कि देव साहब  नहीं रहे ....
मैं  जिंदगी  का साथ निभाता चला गया ....

देवानंद अपने ही तरह के  अलग फनकार थे, और ये गीत हमेशा  के लिए उनकी  जिंदगी  का थीम सांग बना    रहा  . मैंने अभी किसी पत्रिका में पढ़ा कि वो कहते थे कि बीता हुआ वक्त सिर्फ इतिहासकारों के लिए होता है . गाइड  मैंने सत्रह साल की उम्र में  पहली बार  देखी थी  उस  वक्त शायद वहीदा जी को ज्यादा गौर से देखा होगा ..........अब देव साहब के लिए गाइड  गौर से  देखूंगा .

                            अगली  बार हरियाणवी संस्कृति पर काफी कुछ  लिखा  जाएगा 

Tuesday, June 7, 2011

फुरसत कभी नही मिलती...

वह 14 अगस्त की उजली सुबह थी जब मैं लेह हवाई अड्डे से दिल्ली आने की जल्दी में था मेरी वापसी का कार्यक्रम आनन् - फानन में हुआ और मै समझ ही नहीं पाया कि मुझे लामाओं की धरती से इतनी जल्दी लौटना पड़ेगा एक सुन्दर सी युवती की सुरीली आवाज के साथ "सर चाय लेंगे या काफी " मुझे ध्यान आया कि लद्धाख पीछे छूट गया है ,पीछे रह गई है पेगोंग लेक, स्थानीय लोगों द्वारा की गई मेहमानवाजी और गुडगुड चाय लेह से लगभग 2oo किलोमीटर दूर एक गॉव में उपहार में लोग छंग (देसी शराब) लेकर आये थे, लेकिन मुझे उनकी वो गुडगुड चाय पीने का अवसर मिला जिसकी मिठास एयर हास्टेस के हाथों परोसी गई चाय से कई गुना ज्यादा थी
मैंने लद्धाख रहते हुए काफी विडिओ फुटेज जमा किया और योजना थी कि इसे विशेष प्रकार से एडिट करूँगा एक लम्बा वक्त बीत जाने के बाद भी मैं ऐसा कर सका लद्दाख में भयंकर बाढ़ आई, उस जलजले की तस्वीरें देख कर मुझे बेचैनी होती रही और मैं उन भोले- भाले लोगों की सलामती के लिए दुआ करता रहा वहां एक गाँव में एक व्यक्ति मुझसे बात करते हुए पूछने लगा कि आपने दिल्ली शहर देखा है ? मेरे हाँ कहने पर उसने पूछा कि दिल्ली का बाजा लेह के बाजार से भी बड़ा है?मैं कई देर तक उस आदमी का चेहरा गौर से देखता रहा जिसे लेह ही राजधानी सा लगता है
मैं अब इस वीडियो को एडिट कर रहा हूँ पूरानी यादें ताजा हो रही हैं ......इस वीडियो में कहीं -कहीं मेरा चेहरा भी दिखता है ...... कभी लद्दाख के भूरे पत्थरों की तरह तो कभी जैसे पेंगोंग के पानी की तरह . मैं अपने चेहरे को नजरंदाज करके एडिटिंग मशीन पर एक बौद्ध मठ से मणि पद्मे हूम की आवाज सुनता हूँ जो मुझे उन लोगो के बीच होने का अहसास कराती है
ये ही मेरे लिए फुरसत के बहाने हैं जब मैं गुडगुड चाय की महक को महसूस करता हूँ
डॉ.कृष्ण कुमार